मंगलवार, 1 मई 2012

मजदूर दिवस...मज़ाक मजदूर का या व्यवस्था का?

मजदूर --समाज का वो अभिन्न अंग जिसके बिना समाज अधुरा है आज मजदूर दिवस है और देश के ज्यादातर मजदूरो को इसका मतलब भी नहीं पता होगा और न ही वो जानना चाहेंगे क्यूंकि उनके पास सिर्फ और सिर्फ एक काम है अपने  खून पसीने से अपना और अपने घर वालो का पेट भरना पर मजे की बात ये है की हमारी सरकार आज के दिन भी राजनीति करने से बाज नहीं आती है और आज के दिन  भी नए नए खोखले  और झूठे वादे किये जायेंगे इन मजदूरों के लिए पर वो सिर्फ और सिर्फ कागजों में सिमट कर रह जायेंगे...आज जब घर बनते है तब ये मजदूर बड़े ही खुशियों के साथ उसमे अपनी पूरी मेहनत बिखेर देते है ताकि हमारा और आपका सपना सच हो जाये पर आज तक उन मजदूरो का अपना सर छुपाने के लिए कोई स्थायी ठिकाना नहीं है पर इसके बाद भी वो खुश है और बिना शिकायत और अपेक्षाओं के वो एक एक करके नए नए घरो के निर्माण में अपना खून पसीना बहा रहे है ...ठीक इसी तरह एक किसान सुबह से उठ कर अपने खेतो में मेहनत करने में जुट जाता है जिसकी असली मेहनत के कारण पूरा देश खाना खा पा रहा है पर क्या पता है की उस किसान को खेती करने के दौरान कितनी मेहनत और मुश्किलों का सामना करना पड़ता है हालत इस कदर हो जाते है की कई दफा खुद दुसरो के लिए अनाज की उपज करने वाले  इस  मेहनती किसान के पूरे परिवार को भूखे  पेट सोना पड़ता है ..इसके बाद भी वो किसान खून पसीना लगातार खेतो में बहाता रहता है ...कई बार उस किसान की फसल ज्यादा बारिशो  के कारण बर्बाद हो जाती है या फिर सुखा पड़ने के कारण तब भी वो किसान मेहनत करके आपका और हमारा पेट भर रहा है ...ठीक इसी तरह पेट पलने के लिए अपने घरो से दूर जाकर शहर में रिक्शा चलाने वाले रिक्शा चालको का भी हाल यही है वो इंसान अपनी मेहनत से हमें हमारी मंजिल तक पहुँचाता है और उसके बाद पैसे बचा बचा कर अपने और अपने परिवार का पालन पोषण करता है...अब बात करते है आधुनिक भारत की जहाँ पर इन मजदूरो की उनके गरीब होने के कारण सजा भुगतनी पड़ती है ...जो मजदूर कड़ी धुप में मेहनत करके लोगो का घर बनाने का काम करता है उसे प्रतिदिन मेहनताना के रूप में १०० या १२०  रुपये मिलते है जिसमे से कुछ पैसे ठेकेदार खा लेते है ...और उस मजदूर के हिस्से में गालियाँ  और मारपीट आ जाता है ...ठीक इसी तरह किसान का भी हाल यही है उसकी मेहनत से उगाई गयी फसल दलाल के हाथ चली जाती है और दलाल मन माफिक भाव से उस धान को बाज़ार में बेचता है और किसान के हिस्से उसकी मेहनत से भी कम की कमाई आती है पानी मांगने पर किसानो को डंडे मिलते है सरकारी सब्सीडी के नाम पर उन्हें धोके मिलते है जिस देश को कृषि प्रधान देश कहते है आज उसी देश के किसान भुखमरी  और आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या करने को मजबूर है! ठीक इस प्रकार रिक्शा चालको  का भी हाल यही है वो धुप बरसात ठण्ड में मुसाफिरों को उनके मंजिलो तक पहुंचाते है बदले में उन्हें आधा भाड़ा मिलता है और नहीं तो जम कर गालियाँ सुनाई जाती है ...हद तो तब हो जाता है जब एक अमीर इंसान लगातार गरीबो का पैसा खाने लगता है पर इनसब के बाद भी वो रिक्शाचालक कुछ बोल नहीं सकता और कुछ कर नहीं सकता क्यूंकि उसके माथे पर  गरीबी का तमगा जो लगा हुआ है ...सड़क पर सो रहा होता है तो समाज का बड़ा तबका उनपर गाड़ी चढ़ा  देता है पानी मांगता है तो लाठियां मिलती है अपना हक मांगता है तो पुलिस थाने  ले जाती है अमीरों का पैरो के तले उसे हमेशा दबना ही होता है इसके बाद भी खुशियों के साथ अपनी गरीबी भरी जिंदगी में मस्ती से जी रहा होता है ...अब सोचने वाली बात ये है की क्या गरीब वो है या हम है अनपढ़ वो है या हम है ? हमारे देश में गरीब कम से कम अपने बच्चे का खून नहीं कर रहा है जैसा की हाई क्लास सोसाइटी में अपनी इज्ज़त के खातिर किया जा रहा है ! ये मजदूर भ्रूण हत्या नहीं कर रहे है जैसी की हाई क्लास और मीडिल क्लास सोसाइटी के  ज्यादातर लोग करते है ...आज वो इस भीड़ और दिखावटी दुनिया से बहुत दूर जी रहे है पर उनके अन्दर संतुष्टता की लकीरें साफ़ दिखती है उनके अन्दर की इंसानियत साफ़ झलकती है और तो और तो और उनके अन्दर मजहब जाती धर्म से न कोई लेना है न कोई देना है पर ये मजदूर हम मीडिल क्लास और अपर क्लास सोसाइटी से ज्यादा पढ़े लिखे और समझदार है !



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